Thursday, February 7, 2013

Introduction

नमस्कार, ईस्टमैन कलर इंडिया में आपका स्वागत है... ईस्टमैन महज़ एक ब्लॉग नहीं है... बल्कि इस प्लेटफॉर्म के ज़रिए भारतीय सिनेमा के इतिहास और उसमें हुए विकास की झलक को उभारने की कोशिश की गई है... जैसा कि हम वाकिफ हैं कि साल 1896 में ल्यूमियर बंधुओं ने पहली फिल्म का निर्माण किया था जिसे लंदन में प्रदर्शित किया गया और 7 जुलाई साल 1896 में पहली बार बंबई(वर्तमान मुंबई) में इसका प्रदर्शन किया गया... यहीं से फिल्म निर्माण की नींव पड़ी... इन फिल्मों को देखने के बाद एच एस भटवडेकर ने मुंबई में और हीरालाल सेन ने कलकत्ता में चलचित्र का निर्माण शुरु किया... ये चलचित्र मूक होने के साथ साथ काफी छोटे होते थे... या हम कह सकते हैं कि छोटी कहानियों को चित्रों के ज़रिये पेश किया जाता था... पहली शॉर्ट फिल्म हीरालाल सेन ने 1898 में बनाई जिसका नाम था फ्लॉवर ऑफ पर्शिया... जहां एक ओर शॉर्ट फिल्म्स का निर्माण शुरु हो गया था... तो लंदन में भारतीय सिनेमा की नींव डाली जा रही थी... दादा साहेब फाल्के ने लंदन में ईसा मसीह पर आधारित एक फिल्म देखी... ये फिल्म ल्यूमेर बंधुओं की बनाई गई शॉर्ट फिल्म से काफी अलग थी... और लंबी थी... यहीं से दादा साहेब को विचार आया कि वो भी किसी पौराणिक कहानी पर आधारित फिल्म का निर्माण कर सकते हैं... और इसी विचार के साथ वो भारत लौटे... भारतीय सिनेमा की शुरुआत साल 1913 में मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र से हुई थी... जिसकी शुरुआत दादा साहेब फाल्के ने की... उन्हीं की प्रेरणा को अपने सामने रखकर भारतीय सिनेमा आगे बढ़ा और आज सिनेमा की तस्वीर हमारे सामने है... इस ब्लॉग के ज़रिये हमारी कोशिश है कि हम आपको सिनेमा की उस पहचान से भी रुबरु कराएं जो शायद यादों के झरोखों में कहीं खो चुकी है... और हमारी कोशिश होगी फिल्मों से जुड़ी कुछ ऐसी कहानियां आपको बताने की जिन्हें पढ़कर आप जानेंगे कि हम जिन फिल्मों को देखते हैं दरअसल उन फिल्मों को बनाने और उन फिल्मों को आप तक पहुंचाने के पीछे कितने लोगों की मेहनत और जज़्बात जुड़े रहे हैं... साथ ही शुरुआती दौर में फिल्मों का निर्माण करना पैसा कमाने का ज़रिया नहीं था... ये कला की साधना करने वालों के लिए एक मंच था जिसमें लोगों ने ना सिर्फ वक्त दिया बल्कि जीवन को इसी के लिए समर्पित कर दिया... दादा साहेब फाल्के ने भारत में फिल्म निर्माण की नींव रखी... तो इसके बाद विष्णुपंत दामले, वी. शांताराम जैसे फिल्म निर्माताओं ने इस विरासत को आगे बढ़ाया... आपको शायद ये पता नहीं होगा लेकिन फिल्मों के शुरुआती दौर में मुनाफा कमाना फिल्म निर्माताओं का मकसद नहीं था... ये स्टूडियोज़ का दौर था... जिस वक्त कलाकारों को वेतन पर रखा जाता था फिर वो चाहे हीरो हो या फिर म्यूज़िक डायरेक्टर सभी को काम के हिसाब से वेतन दिया जाता था... फिल्मों का निर्माण शौकिया तौर पर किया जाता था... और फिल्मों की लागत निकालने के लिए टिकट रखा जाता था... और टिकट की कीमत हुआ करती थी महज़ एक आना यानि कि 4 पैसा... ये उस दौर की बात है जब देश अंग्रज़ों का गुलाम था और आज़ादी पाने की कोशिश कर रहे देश के लोगों में हौसले को जगाना ज़रूरी था और इस काम में भी उस वक्त फिल्मों ने खासा योगदान किया...

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