Sunday, March 24, 2013

Mukri




                               
5 जनवरी 1922 को जन्मे मुकरी फिल्म इंडस्ट्री में एक कॉमेडियन के तौर पर जाने जाते हैं। उनका असली नाम मुहम्मद उमर मुकरी था। मुकरी साहब ने 50 साल से ज़्यादा लंबे करियर में 600 से ज़्यादा फिल्मों में अभिनय किया और अपनी एक अलग पहचान बनाई। उनकी पहली फिल्म थी दिलीप कुमार के साथ प्रतिमा, जो कि बॉम्बे टॉकीज़ के बैनर तले साल 1945 में रिलीज़ हुई थी। आपको जानकर हैरानी होगी कि मुकरी साहब फिल्मों में आने से पहले काज़ी थे यानि कि वो लोगों की शादियां करवाते थे। दरअसल मुकरी साहब को फिल्मों में दिलीप साहब लाए। युसुफ मतलब दिलीप कुमार और मुकरी साहब स्कूल के ज़माने से एक दूसरे को जानते थे। लिहाज़ा अपने इस अज़ीम दोस्त को युसुफ साहब फिल्मों में ले आये। दिलीप साहब की ज्यादातर पुरानी फिल्मों में मुकरी साहब अपनी अलग छाप छोड़ते नज़र आते हैं। मुहम्मद उमर मुकरी की पत्नी का नाम मुमताज़ था। इनके 2 बेटियां और 3 बेटे हुए। मुकरी के बेटे नसीम मुकरी फिल्मों में लेखक बने। नसीम मुकरी ने फिल्म धड़कन और हां, मैने भी प्यार किया के डॉयलॉग लिखे हैं। मुकरी साहब की बेहतरीन फिल्मों का ज़िक्र करें उनमें फिल्म अमर अकबर एंथोनी’, ‘लावारिस, कोहिनूर’, ‘ पड़ोसनऔर मदर इंडिया जैसी क्लासिक फिल्में शुमार होती हैं। फिल्म शराबी का वो डॉयलॉग कौन भूल सकता है  मूंछें हों तो नत्थूलाल जैसी हों, वरना ना हों... 
                                 
फिल्म इंडस्ट्री का ये जगमगाता दीपक 4 सितंबर 2000 को सदा के लिये बुझ गया।

Monday, March 18, 2013

Balraj Sahni

                                               
बलराज साहनी के नाम से आप सभी अच्छे से वाकिफ़ होंगे। जी हां, वही बलराज साहनी जिन्हें आपने वक्त फिल्म में ऐ मेरी ज़ोहरे ज़बी गाते ज़रुर देखा होगा। बलराज साहनी का असली नाम युधिष्ठिर साहनी था। बलराज का जन्म पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में हुआ था। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि प्रसिद्ध लेखक भीष्म साहनी बलराज साहनी के भाई थे। बलराज की सारी पढ़ाई लिखाई लाहौर में हुई थी। अंग्रेजी में अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद बलराज रावलपिंडी आ गए जहां उन्होंने अपने पारिवारिक व्यवसाय में हाथ बंटाना शुरु कर दिया। अंगेजी में डीग्री खत्म करने के बाद दमयंति नाम की महिला से बलराज की शादी हो गई। 1930 में बलराज साहनी ने रावलपिंडी छोड़ दिया और बंगाल में अंग्रेज़ी औऱ हिंदी विषय के प्रोफेसर पद पर कार्य करने लगे। यहीं पर बेटे परिक्षित साहनी का जन्म हुआ। परिक्षित साहनी को आपने कई छोटी बड़ी भूमिकाओं में कई फिल्मों में अक्सर देखा होगा, जैसे कि लगे रहो मुन्ना भाई और 3 ईडीयट्स। जिस वक्त परिक्षित का जन्म हुआ, उनकी मां दमयंति स्नातक की पढ़ाई कर रही थीं। बलराज साहनी ने एक साल तक गांधी जी के साथ भी काम किया। जिसके बाद गांधी जी का आशिर्वाद लेकर साहनी 1938 में लंदन चले गए और वहां बीबीसी हिंदी सेवा में रेडियो उद्घोषक यानि कि एनाउंसर का काम करने लगे। साल 1943 में बलराज वहां से वापस हिंदुस्तान लौट आए। स्वदेश लौटने के बाद बलराज इप्टा के साथ जुड़े, उन्होंने फिल्मी करियर की शुरुआत साल 1946 में फिल्म इंसाफ से की।
                 
बलराज की पत्नी दमयंति की साल 1947 में मौत हो गई थी, लेकिन बलराज साहनी ने फिल्मों का अपना सफर जारी रखा। साल 1953 में आई फिल्म दो बीघा ज़मीन से बलराज की पहचान बनी, औऱ इस फिल्म ने कांस फिल्म फेस्टिवल में कई पुरस्कार भी जीते। 1961 में बनी फिल्म काबुलीवाला में बलराज ने मुख्य भूमिका अदा की। बलराज साहनी ने यूं तो कई हिरोइंस के साथ काम किया, साल 1965 में आई फिल्म वक्त में बलराज मुख्य भूमिका में तो थे ही, अचला सचदेव के साथ गाए गए गीत ऐ मेरी ज़ोहरे ज़बी ने फिल्म इंडस्ट्री में धूम मचा दी। बेहद कम लोग ये जानते हैं कि बलराज साहनी ने कुछ किताबें भी लिखीं। जैसे की मेरी पाकिस्तान यात्रा और मेरा रूसी सफ़रनामा। साल 1951 में आई फिल्म बाज़ी के लेखक बलराज साहनी ही थे। फिल्म बाज़ी का निर्देशन गुरुदत्त ने किया था जबकि देव आनंद मुख्य भूमिका में थे। साल 1969 में बलराज साहनी को पद्मश्री सम्मान से भी नवाज़ा गया। बलराज पूरी फिल्म इंडस्ट्री के चहेते थे। अपने पूरे करियर में बलराज किसी भी कॉन्ट्रोवर्सी में नहीं फंसे। छोटी बेटी शबनम की अचानक मौत ने बलराज को बेहद कमज़ोर कर दिया था। आखिर 13 अप्रैल 1973 को बलराज ने अंतिम सांस ली। पूरी फिल्म इंडस्ट्री बलराज को हमेशा याद रखेगी।

Friday, March 15, 2013

Baldev Raj Chopra

                           
बीआर चोपड़ा हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के माइल स्टोन ही नहीं है बल्कि देश में टीवी सिरियल्स की शुरुआत करने वालों में से हैं... बीआर चोपड़ा का पूरा नाम बलदेव राज चोपड़ा था। बीआर चोपड़ा ने अपने करियर की शुरुआत साल 1944 में की... वो लाहौर से निकलने वाली सिने हेराल्ड नाम की पत्रिका में पत्रकार थे, बाद में इस मैगज़ीन को वो खुद ही चलाने लगे और साल 1947 तक इसका प्रकाशन किया। साल 1947 में ही उन्होंने आईएस जौहर की लिखी गई एक कहानी पर चांदनी चौक फिल्म का निर्माण करने की शुरुआत की... जिसमें नईम हाशमी को हीरो की भूमिका दी गई... साल 1947 में आज़ादी के बाद जब मुल्क के दो टुकड़े हो गए तो बीआर चोपड़ा को पूरे परिवार समेत दिल्ली आना पड़ा... दिल्ली से कुछ दिनों के बाद बीआर चोपड़ा मुंबई जाकर बस गए... साल 1948 में उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरने का मन बना लिया... और 1948 में करवट फिल्म का निर्माण किया। जो कि बॉक्स ऑफिस पर ज़्यादा कमाल नहीं दिखा पाई... साल 1951 में आई फिल्म अफसाना ने बीआर चोपड़ा को हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री में पहचान दिला दी। इस फिल्म में अशोक कुमार को डबल रोल था। बीआर चोपड़ा ने साल 1954 में अपनी फिल्म चांदनी चौक की फिर से शुरुआत की। इस फिल्म में मीना कुमारी को लिया गया। साल 1955 में बीआर चोपड़ा ने अपनी खुद की फिल्म कंपनी बीआर फिल्म्स की नींव रखी। जिसने साल 1957 में बनाई फिल्म नया दौर ये फिल्म बीआर फिल्म्स के लिए मील का पत्थर साबित हुई। इसके बाद बीआर चोपड़ा ने एक के बाद एक हिट फिल्मों की झड़ी लगा दी। जैसे साधना (1958), कानून (1961), गुमराह (1963) और हमराज़ (1967)। अस्सी के दशक में बनाए गए टीवी सीरियल महाभारत ने बीआर फिल्म को एक नए मुकाम पर पहुंचाया।
                              
1998 में बीआर चोपड़ा को 'दादा साहब फाल्के अवॉर्ड' से नवाज़ा गया। आपको बता दें कि निर्देशक यश चोपड़ा, बीआर चोपड़ा के छोटे भाई थे। लंबी बीमारी के बाद 94 साल की उम्र में साल 2008 में बीआर चोपड़ा का निधन हो गया।

Thursday, March 14, 2013

Music Director 'Naushad Ali'

                                               
मशहूर फिल्म संगीतकार नौशाद का जन्म लखनऊ में साल 1919 में हुआ था... बचपन से ही नौशाद को संगीत का शौक रहा... नौशाद को बचपन में उनका परिवार बाराबंकी के देवा शरीफ ले जाया करता था... वहीं नौशाद ने कव्वालों और हिन्दुस्तानी संगीतकारों को गाते हुए सुना... वहीं से संगीत का बीज नौशाद के मन में अंकुरित हो गया... और वहीं उन्होंने संगीत सीखना शुरु किया... हरमोनियम को दुरुस्त करना सीखा... साथ ही साथ वो लखनऊ के रॉयल थिएटर मेँ फिल्में देखने जाया करते थे... उस वक्त मूक फिल्मों का प्रचलन था... मूक फिल्में जब बड़ी बनने लगीं तो फिल्म के बीच में बोरियत न हो इसके लिए थियेटर मालिक गाने बजाने वालों को बुलाते थे जिन्हें पहले उन्हें फिल्में दिखाईं जाती थी और उन फिल्मों के हिसाब से उन्हें संगीत तैयार करना होता... ये संगीत सुनने के लिए नौशाद सिनेमा थियेटर जाया करते थे... और इसी ग्रुप में नौशाद शामिल हो गये और संगीत सीखने लगे... नौशाद के घरवालों को नौशाद की ये बात अच्छी नहीं लगी और एक दिन नौशाद के पिता ने उन्हें चेतावनी दी कि वो संगीत छोड़ दें या फिर घर से निकल जाएं... नौशाद ने घर छोड़ दिया और मुंबई आ गए अपनी किस्मत आज़माने के लिए साल 1937 में... मुंबई आने के बाद नौशाद को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा शुरुआत में वो अपने किसी परिचित के यहां रहने लगे लेकिन कुछ दिन के बाद उन्हें आसरा छोड़ना पड़ा और मजबूरी में उन्हें ब्रॉडवे थियेटर के सामने फुटपाथ पर भी सोना पड़ा... इसके बाद उस्ताद झंडे खां के असिस्टेंट के तौर पर 40 रुपये प्रति माह की नौकरी पर गुज़ारा शुरु हुआ... हालांकि पहली फिल्म एक रशियन डायरेक्टर के साथ करनी थी लेकिन किन्ही वजहों से वो फिल्म रिलीज़ नहीं हो सकी। इसके बाद नौशाद ने एक ऑर्केस्ट्रा में प्यानो बजाने का काम किया... जो कि ज़्यादा दिनों तक नहीं चला... इसके बाद संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने उन्हें अपनी फिल्म में असिस्टेंट के तौर पर लिया... वो फिल्म थी कंचन जिसके लिए नौशाद को 60 रुपया प्रति माह का वेतन मिलने लगा... नौशाद फिल्म इंडस्ट्री में संगीतकार खेमचंद प्रकाश को अपना गुरु मानते थे... साल 1939 में नौशाद ने एक पंजाबी फिल्म मिर्ज़ा साहिब में असिस्टेंट म्यूज़िक डायरेक्टर का काम किया... नौशाद को पहला सिंगल ब्रेक मिला साल 1940 में आई फिल्म प्रेम नगर से... इसके बाद साल 1942 में आई फिल्म नई दुनिया जिसके लिए पहली बार नौशाद को म्यूज़िक डायरेक्टर का क्रेडिट दिया गया... साल 1944 में आई फिल्म रतन के बाद नौशाद को बड़ी सफलता मिली और संगीतकार नौशाद को एक फिल्म के लिये 25 हज़ार रुपये की फीस मिली... संगीतकार नौशाद के बारे में एक किस्सा काफी मशहूर है... नौशाद फिल्मों में संगीत देने लगे थे.. घरवालों की मर्जी के खिलाफ वो ये काम कर रहे थे... शादी के लिए उनके घरवाले लगातार उनपर दबाव बना रहे थे... नौशाद राजी हो गये... लेकिन घरवालों के सामने एक मुश्किल आ खड़ी हुई... वो वक्त था जब साल 1944 में फिल्म रतन से नौशाद को पहली सफलता मिली थी... फिल्म इंडस्ट्री आम जनता की नज़र में बदनाम थी और उसमें काम करने वालों को भी भली नज़रों से नहीं देखा जाता था... नौशाद के परिवार वालों ने लड़की के घरवालों को बताया कि नौशाद पेशे से दर्ज़ी (टेलर) हैं... लड़की के घरवाले शादी के लिए राज़ी हो गये... और जिस दिन शादी थी उस दिन बैंड वाले रतन फिल्म का वही गाना बजा रहे थे जिस गाने से नौशाद को पहचान मिली थी...  ओ जाने वाले बालमवा लौट के आ लौट के आ’... साल 1982 में नौशाद  को दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड ने नवाज़ा गया था... और साल 1992 में पद्न भूषण अवॉर्ड से नवाज़ा गया... नौशाद ने अपने पूरे करियर में 100 से कम फिल्मों में संगीत दिया लेकिन उनकी आधी से ज़्यादा फिल्मों को सुपरहिट का दर्जा हासिल है
               
साल 1957 में आई फिल्म मदर इंडिया का संगीत नौशाद साहब ने ही दिया था। मदर इंडिया वो पहली फिल्म है जिसे पहली बार भारत की ओर से ऑस्कर में नामांकित करने के लिये चुना गया... नौशाद की आखिरी फिल्म साल 2005 में आई फिल्म ताज महल थी... जिसमें 86 साल की उम्र में नौशाद ने संगीत दिया... 5 मई 2006 को संगीतकार नौशाद अली ने दुनिया को अलविदा कह दिया...
                   

Wednesday, March 13, 2013

Guru Datt


                                              
गुरुदत्त का असल नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था। उनका जन्म 9 जुलाई साल 1925 में बैंगलूरू में हुआ था। गुरुदत्त के पिता स्कूल में हैडमास्टर के पद पर थे हालांकि बाद में वो बैंक में काम करने लगे। गुरुदत्त में कलात्मक गुण आए तो वो आए अपनी मां के ज़रिये, गुरुदत्त की मां का नाम वासंति पादुकोण था, यूं तो वो सिर्फ एक गृहणी थीं लेकिन कुछ वक्त के बाद उन्होंने स्कूल में पढ़ाना शुरु किया। धीरे धीरे उन्होंने लेखन का कार्य शुरु किया और कहानियां लिखने लगीं। उन्होंने कुछ बंगाली उपन्यासों का अनुवाद भी किया। आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस वक्त गुरुदत्त का जन्म हुआ उनकी मां की उम्र सिर्फ 16 साल थी। गुरुदत्त का बचपन काफी मुश्किलों भरा रहा, अपने पारिवारिक विवादों के चलते उन्हें काफी मुश्किलें झेलनी पड़ीं। कुछ दिनों बाद अपने तीन भाईयों और एक बहन के साथ वो बंगाल में आकर बस गए। बंगाल में रहने के बाद उन्होंने बंगाली नाम भी ग्रहण कर लिया और लोग उन्हें गुरुदत्त के नाम से जानने लगे। गुरुदत्त ने कोलकाता आकर अपने मामा बालकृष्ण बेनेगल के साथ काफी वक्त बिताया। आपको ये जानकर भी हैरानी होगी कि बालकृष्ण बेनेगल मशहूर फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के चाचा थे, जो कि एक पेंटर थे औऱ फिल्मों के पोस्टर्स डिज़ाइन किया करते थे। घर में आर्थिक मुश्किलों के चलते गुरुदत्त ज़्यादा पढ़ाई नहीं कर सके। लेकिन उन्होंने कला का दामन नहीं छोड़ा और वो अल्मोडा के उदय शंकर ट्रूप के साथ शामिल हो गये। यहां उन्होंने डांस की ट्रेनिंग ली और काफी वक्त इस ग्रुप के साथ बिताया। गुरुदत्त साल 1941 में इस संस्था से जुड़े थे तब उन्हें 75 रुपये प्रति माह की 5 सालो के लिए स्कॉलरशिप मिली लेकिन साल 1944 में दूसरे विश्व युद्ध के चलते इस संस्था को ही बंद कर देना पड़ा। अब गुरुदत्त बेरोज़गार थे, वो वापस कोलकाता आ गये। यहां उन्होंने लीवर ब्रदर्स की फैक्ट्री में टेलीफोन ऑपरेटर का काम शुरु किया लेकिन इस कलाकार का ज़्यादा दिन इस काम में उनका मन नहीं लगा और वो पुणे चले आए। अपने मामा के ज़रिये उन्हें प्रभात फिल्म कंपनी में 3 साल का कांट्रैक्ट मिल गया, यहां उनकी मुलाकात वी शांताराम से हुई। वी शांताराम उनकी प्रतिभा देख चुके थे, और उन्होंने तभी कला मंदिर की स्थापना भी की थी। यहीं गुरुदत्त की मुलाकात देव आनंद और रहमान जी से हुई और यहीं से उनकी दोस्ती की शुरुआत भी हुई। गुरुदत्त इसके बाद साल 1947 तक प्रभात फिल्म कंपनी के सीईओ बाबूराव पई के असिस्टेंट भी रहे। इस बीच तकरीबन 8 महीने तक बेरोज़गार रहने के दौरान उन्होंने अंग्रेजी में लिखना शुरु किया और मुंबई की साप्ताहिक अंग्रेजी पत्रिका में लिखा। उन्होंने अपने जीवन पर ही आधारित कहानी लिखी जिसे प्यासा फिल्म के तौर पर पर्दे पर उतारा गया। माना जाता है कि ये फिल्म गुरुदत्त के जीवन पर ही आधारित थी। पहले इस फिल्म का नाम कश्मकश रखा गया था जिसे बाद में बदल कर प्यासा कर दिया गया।
                                   
क्या आप जानते हैं कि गुरुदत्त का फिल्मों में पदार्पण कोरियोग्राफर यानि की डांस डायरेक्टर के तौर पर हुआ था। हालांकि वो निर्देशक बनना चाहते थे। खैर देव आनंद के साथ गुरुदत्त की पहली मुलाकात का किस्सा भी काफी रोचक है, देव साहब अपनी फिल्म हम एक हैं कि शूटिंग कर रहे थे अचानक सेट पर उन्होंने देखा कि उनकी शर्ट गायब है, थोड़ी तलाश के बाद उन्होंने देखा कि फिल्म के कोरियोग्राफर साहब उनकी शर्ट पहने हुए हैं। टोकने पर उन जनाब ने माना कि दूसरी शर्ट नहीं होने के चलते उन्होंने ये शर्ट पहन ली। यहीं से देव आनंद और गुरुदत्त की दोस्ती की शुरुआत हुई। चूंकि देव आनंद भी उस वक्त ज़्यादा बड़े स्टार नहीं थे और न हि गुरुदत्त, तो यहां पर दोनों दोस्तों ने तय किया कि अगर देव आनंद का पहले सफलता मिली तो वो गुरुदत्त को ब्रेक देंगे और अगर गुरुदत्त को पहले सफलता मिली तो वो देव साहब को। देव आनंद ने अपना वादा निभाया और अपने प्रोडक्शन नव केतन की पहली फिल्म बाज़ी में गुरुदत्त को निर्देशक के तौर पर ब्रेक दिया। हालांकि बाद में गुरुदत्त और देव आनंद के बड़े भाई चेतन आनंद में कुछ तकरार हो गई जिसके बाद इन दोनों की दोस्ती में थोड़ी दरार आ गई। गुरुदत्त ने अपना वादा निभाया और देव आनंद के साथ फिल्म सीआईडी बनाई, हालांकि रिश्तों में तल्खी की वजह से गुरुदत्त ने फिल्म का निर्देशन नहीं किया और उनके असिस्टेंट राज खोसला फिल्म के निर्देशक बने।
                                  
इस फिल्म की खास बात ये भी है कि फिल्म में ज़ोहरा सहगल को भी ब्रेक मिला और वो इस फिल्म की कोरियोग्राफर बनीं। ज़ोहरा सहगल गुरुदत्त के साथ अल्मोड़ा में उदय शंकर ग्रूप का हिस्सा थी जहां वो पहली बार गुरुदत्त से मिलीं थीं। इसके बाद गुरुदत्त ने कई फिल्मों का निर्माण किया जिसमें कागज़ के फूल और चौदवीं का चांद काफी सफल रहीं। गुरुदत्त की प्रोडक्शन की आखिरी फिल्म थी सांझ और सवेरा जिसका निर्देशन ऋषिकेश मुखर्जी ने किया था। इस फिल्म का सफलता भी मिली लेकिन गुरुदत्त की ये आखिरी फिल्म बनीं। गुरुदत्त की मौत पर भी काफी सवाल खड़े हुए। एक दिन गुरुदत्त अपने बिस्तर पर मृत पाये गये। मेडिकल रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ कि उन्होंने शराब के साथ नींद की गोलियां मिलाकर खा लीं थी। कुछ लोग इसे आत्महत्या मानते हैं क्योंकी गुरुदत्त पहले भी दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे। लेकिन उनके सुपुत्र मानते हैं कि ये सिर्फ एक एक्सिडेंट था क्योंकी नींद की गोलियां वो अक्सर नींद नहीं आने पर खाया करते थे। अचानक हुई उनकी मौत से पूरी फिल्म इंडस्ट्री को झटका लगा था।

Madhu Bala

      

मधुबाला का जन्म साल 1933 में दिल्ली के एक मुस्लिम परिवार में हुआ था... मधुबाला का असली नाम मुमताज़ जहां बेगम देहलवी था... और वो अपने 11 भाई बहनों में 5वें नंबर पर थीं... मधुबाला के पिता एक तंबाकू कंपनी में काम करते थे... कंपनी से नौकरी छूट जाने के बाद परिवार की माली हालत काफी खस्ताहाल हो गई... मधुबाला का परिवार मुंबई आ गया... परिवार पर गमों का ऐसा कहर टूटा कि 5 और 6 साल की उम्र के मधुबाला के दो भाइयों का इंतकाल हो गया... क्योंकी उन्हें पैसों की तंगी के चलते इलाज नहीं मिल सका... मधुबाला पर ज़िम्मेदारी काफी छोटी उम्र से आ गई थी... इसी के चलते 9 साल की उम्र में फिल्म इंडस्ट्री में मधुबाला की एंट्री हो गई... मधुबाला की पहली फिल्म थी 1942 में रिलीज़ हुई फिल्म बसंत... इसमें मधुबाला ने उस वक्त की बड़ी स्टार मुमताज़ शांति की बेटी का रोल अदा किया था... इसके बाद मधुबाला ने काफी फिल्मों में बाल कलाकार की भूमिका निभाई... इस दौरान वो देविका रानी के संपर्क में आईं... देविका रानी मधुबाला को देखकर काफी खुश हो जाती थीं... और मुमताज़ जहां बेगम को नाम मिला मधुबाला का... मधुबाला को लीड रोल में ब्रेक मिला फिल्म नीलकमल से... नीलकमल में मधुबाला के साथ राज कपूर ने काम किया था... ये फिल्म ज़्यादा चली तो नहीं लेकिन इस फिल्म ने मधुबाला को इंडस्ट्री में ज़रुर पहचान दिला दी.... लोगों के दिलों में मधुबाला ने जगह बनाई फिल्म महल से ... फिल्म महल का निर्माण बॉम्बे टॉकीज़ ने किया था... जिसमें उनके साथ काम किया था उस वक्त के सुपरस्टार अशोक कुमार ने... महल फिल्म को इसलिये भी याद किया जाता है क्योंकी इस फिल्म के गाने आएगा आने वाला ने लता मंगेशकर को भी इंडस्ट्री में प्रसिद्धि दिलाई... आपको जानकर हैरानी होगी कि इस वक्त मधुबाला की उम्र सिर्फ 16 साल की थी... इसके बाद जैसे मधुबाला के करियर को पंख लग गए... एक के बाद एक सुपरहिट फिल्मों में मधुबाला दिखाई देने लगीं... एक और फिल्म जो कि मील का पत्थर साबित हुई वो थी मुगल-ए-आज़म जिसमें मधुबाला नज़र आईं दिलीप कुमार और पृथ्वीराज कपूर के साथ... दिलीप कुमार और मधुबाला के रिश्ते काफी मधुर थे... दोनों शादी करने वाले थे लेकिन एक छोटी सी कहासुनी ने इस रिश्ते को तोड़ने में देर नहीं लगाई... फिल्म नया दौर में वैजयन्ति माला से पहले मधुबाला लीड रोल कर रही थीं... लोकेशन को लेकर कुछ समय से विवाद हो रहा था कि लोकेशन ग्वालियर के बीहड़ इलाके में रखी जाए या नहीं... मधुबाला अपने पिता को बहुत मानती थीं... पिता के मना कर देने के बाद मधुबाला ने ग्वालियर जाने से इंकार कर दिया... सारी तैयारियां हो चुकीं थीं लिहाज़ा फिल्म का पूरा यूनिट काफी परेशान था... इस बात से नाराज़ होकर बीआर चोपड़ा ने मधुबाला पर केस कर दिया और मधुबाला केस हार गईं... केस हार जाने के बाद मधुबाला के पिता को काफी बातें सुननी पड़ीं जिससे मधुबाला काफी आहत थीं... इस केस के दौरान फिल्म के निर्देशक बीआर चोपड़ा ने दिलीप कुमार से कहा कि वो मधुबाला को राज़ी करने की कोशिश करें... दिलीप साहब ने समझाने की कोशिश की लेकिन वो नहीं मानीं... दिलीप साहब ने कहा कि वो उनसे शादी करें और फिल्म इंडस्ट्री को छोड़ दें... ऐसे में मधुबाला नाराज़ हो गईं... और दिलीप साहब से कहा कि वो केस की वजह से उनके पिता को हुई दिक्कतों के बदले उनसे माफी मांगें... जिसके लिए दिलीप कुमार राज़ी नहीं हुए... और इस किस्से ने दोनों को हमेशा के लिए अलग कर दिया...
                 
मधुबाला के दिल में छेद था जिसका इलाज उस वक्त आसानी से नहीं हो सकता था... मधुबाला काफी वक्त से जानती थीं लेकिन लंबे अरसे तक उन्होंने इंडस्ट्री में इस बात का पता नहीं चलने दिया... वो घर का ही खाना खाती थीं और सिर्फ एक कुएं का ही पानी पीतीं थी... ताकि वो इंफेक्शन से बचीं रहें... लेकिन साल 1969 में 36 साल की उम्र में उनका इंतकाल हो गया...

Friday, February 22, 2013

One of India's most beautiful actresses 'सायरा बानो'

                                          

सायरा बानो हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी स्टार रही हैं... ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने अपने करीयर की ऊंचाई पर पहुंच कर उसका किसी के लिये बलिदान दे दिया और अपनी एक अलग दुनिया बसाई। सायरा उन्हीं लोगों में से एक हैं। सायरा का जन्म एक मुस्लिम परिवार में साल 1944 में हुआ था। सायरा के पिता का नाम मियां एहसान-उल-हक़ था, जो कि एक फिल्म निर्माता थे। सायरा के बचपन का काफी वक्त लंदन में बीता था जहां उन्होंने अभिनय की ट्रेनिंग ली। हिन्दुस्तान लौटने के बाद सिर्फ 17 साल की उम्र में सायरा ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की और वो फिल्म थी जंगली। इस फिल्म में सायरा के साथ शम्मी कपूर जी थे। फिल्म एक ज़बरदस्त हिट रही और सायरा रातों रात स्टार बन गईं। इस फिल्म के लिये सायरा बानो को बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्म फेयर नॉमीनेशऩ भी मिला। आपको शायद ये जानकर हैरानी होगी कि जंगली फिल्म के लेखक आगाजनी कश्मीरी ने सायरा को उर्दू की ट्रेनिंग दी थी क्योंकि सायरा को उर्दू बोलने में थोड़ी परेशानी थी। इस फिल्म का गाना चाहे कोई मुझे जंगली कहे काफी सुपरहिट रहा। इस फिल्म के बाद सायरा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा औऱ उनके करियर को मानों पंख लग चुके थे। इस फिल्म की सफलता के बाद सायरा ने दूसरी जबरदस्त हिट फिल्म दी जो कि थी एक कॉमेडी...पड़ोसन। पड़ोसन के बाद सायरा को काफी ऑफर्स आने लगे। साल 1966 में सायरा ने दिलीप कुमार के साथ निकाह कर लिया। दिलीप साहब के साथ निकाह करने की वजह से सायरा को काफी मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा क्योंकि सायरा की उम्र 22 साल की थी और दिलीप साहब की 44 साल। साथ ही सायरा बानो के बारे में कहा जाता था कि वो राजेंद्र कुमार के साथ शादी करने वाली हैं। ऐसे ही घटनाक्रमों के चलते सायरा बानो और दिलीप साहब की शादी में कई अड़चनें आईँ।
                                                   
 दिलीप साहब के साथ सायरा बानो ने 3 हिट फिल्मों में काम किया। पहली फिल्म थी गोपी, उसके बाद सगीना और बैराग। सायरा को कई फिल्मों जैसे शागिर्द, सगीना और दीवाना के लिए फिल्म फेयरे नॉमिनेशन भी मिले। सायरा ने अपनी शादी के बाद भी कुछ सालों तक काम किया और साल 1984 में फिल्म दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन उनकी आखिरी फिल्म फैसला को कहा जा सकता है जो कि साल 1988 में रिलीज़ हुई हालांकि फिल्म की शूटिंग साल 1978 में पूरी हो चुकी थी लेकिन किन्हीं वजहों से फिल्म को रिलीज़ नहीं किया जा सका था। इसके बाद सायरा ने दिलीप कुमार के साथ अपनी एक दुनिया बसा ली जो कि ग्लैमर के इस मकड़जाल के काफी दूर निकल गई।